ध्यान है केवल स्वयं की उपस्थिति में आनंदित होना; ध्या
न स्वयं में होने का आनंद है। यह बहुत सरल है - चेतना की पूरी तरह से विश्रांत अवस्था जहां आप कुछ भी नहीं कर रहे होते। जिस क्षण आपके भीतर कर्ता भाव प्रवेश करता है आपके अंदर तनाव में आ जाता है; चिंता तुरंत आपके भीतर प्रवेश कर जाती है। कैसे करें? क्या करें? सफल कैसे हों? असफलता से कैसे बचें? तुम पहले ही भविष्य में चले जाते हो।
ध्यान मात्र होना है, बिना कुछ किए - कोई कार्य नहीं, कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं। आप बस हो। और यह एक कोरा आनंद है। जब आप कुछ नहीं करते हो तो यह आनंद कहां से आता है? यह कहीं से नहीं आता या फिर हर जगह से आता है। यह अकारण है, क्योंकि अस्तित्व आनंद नाम की वस्तु से बना है। इसे किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। यदि आप अप्रसन्न हो तो आपके पास अप्रसन्नता का कारण है; अगर आप प्रसन्न हो तो आप बस प्रसन्न हो - इसके पीछे कोई कारण नहीं है। आपक मन कारण खोजने की कोशिश करता है क्योंकि यह अकारण पर विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि यह अकारण को नियंत्रित नहीं कर सकता - जो अकारण है उससे दिमाग बस नपुंसक हो जाता है। तो मन कुछ ना कुछ कारण खोजने में लग जाता है। लेकिन मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब भी आप आनंदित होते हो, तो आप किसी भी कारण से आनंदित नहीं होते, जब भी आप अप्रसन्न होते हो, तो आपके पास अप्रसन्नता का कोई कारण होता है - क्योंकि आनंद ही वह चीज है जिससे आप बने हो। यह आपकी ही चेतना है, यह आपका ही अंतरतम है। प्रसन्नता आपका अंतरतम है।
ध्यान की शुरुआत खुद को मन से अलग करने से होती है, एक साक्षी बनने से। खुद को किसी भी चीज से अलग करने का यही एकमात्र तरीका है। यदि आप प्रकाश को देखते हो, स्वाभाविक रूप से एक बात निश्चित है: की आप प्रकाश नहीं हो, आप ही वह हो जो इसे देख रहे हो। यदि आप फूल को देखते हो, तो एक बात निश्चित है: आप फूल नहीं हो, तुम देखने वाले हो। बस आप कुछ नहीं करें यही ध्यान है। सुनने और पढ़ने में बहुत आसान लगता है लेकिन करने में कठीन है लेकिन असंभव नहीं। धन्यवाद।
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